Sarovar Jinalaya
इक सपना देखा था, कॉलेज में,
पर अक्सर अधूरे ही रह जाते हैं सपने ।
यह ख़्वाब था ही कुछ इतना ऊँचा,
लगा ये नहीं होगा नसीब में अपने ।
पहले जाते थे, सुबह शाम मंदिर,
अब आस थी बस एक झलक की।
कब आया सोमवार कब निकला शनिवार,
रविवार को तजती थीं मेरी पलक भी ।
कब आए रविवार हों प्रभुवर के दर्शन
बस प्रभु से मिलन को करूँ सब कुछ में अर्पण ।
धीरे धीरे चार साल बीत गए,
हम भी इक हाई-फाई नौकरी पा गए।
अब हालात थोड़े बेहतर हो रहे थे ,
प्रभु के दर्शन दो दिन जो मिल रहे थे ।
पर फिर भी मन में आस थी
प्रभु के दर्शन प्रतिदिन पाने की ।
कुछ साधर्मियों से बात साझा की
मंदिर को अपने करीब लाने की ।
पता चला वे भी यही सपना संजोये थे
जैनधर्म रूपी वटवृक्ष का बीज कहीं बोये थे ।
फिर जैसे कहते हैं, चार यार मिले और कारवाँ बनता गया ।
सब का लक्ष्य एक था ,
और अब सब के इरादे भी एक थे।
भाग्य भी कब तक रूठता,
जब नियत साफ़ और इरादे नेक थे ।
हमें अपने आप पर विश्वास था ,
पर ज़माने को परीक्षा देनी थी
मंदिर के अहो-सौभाग्य से पहले,
चैत्यालय जी की ज़िम्मेदारी लेनी थी ।
हमनें प्रयास किये
और संयोग बनते चले गए।
कठिन हो या असंभव ,
हर कार्य करते चले गए ।
और आख़िरकार,
हमें चैत्यालय जी का सौभाग्य मिला ।
हम सब के भाग्य खुल गए,
और सबका था चेहरा खिला ।
नित्य देवदर्शन अब प्राप्त हो रहे थे ।
पर हम तो पूर्ण मंदिर बनाने की बाँट जोह रहे थे ।
सभी मिलकर आगे बढे,
मंदिर के लिए भूमि खोजने को ।
पर शायद अभी परीक्षा बाकी थी,
अंतिम सीढ़ी तक पहुँचने को ।
हफ्ते गुज़रे, महीने गुज़रे
गुज़र गया पूरा साल।
प्रयास करते करते थक गए
बेबस सा था हाल ।
प्रयास कुछ काम से हो गए,
लगा ज्वाला अब मर रही थी ।
पर सौभाग्य से ऐसा न था,
चिंगारी अंदर ही अंदर सुलग रही थी ।
आखिरकार वह दिन आ ही गया,
जिसका बेसब्री से इंतज़ार था ।
श्री जिनमंदिर के लिए भूमि मिल ही गयी
हम सब के चेहरों पर अद्भुत निखार था ।
भभूमिक्रय के पश्चात,
और मंदिर निर्माण आरम्भ होने के पहले।
भूमि पूजन के इस शुभ अवसर पर,
आओ सब जय चन्द्रप्रभ कहलें ।
भाग्य ने भी पुरुषार्थ के समक्ष ,
अपने घुटने टेक दिए ।
हम सब को मिला शुभ फल,
पूर्व में कर्म जो नेक किये ।
एक छोटे से मंदिर की आस,
जो सपने सरीखी थी लगती ।
आज अपने उस जिनमंदिर में
करते हैं प्रभुवर की भक्ति !