सरल या सफल?

असाधारण बनो, असाधारण बनो, असाधारण बनो
सुन सुन कर पक चुका हूँ मै।
साधारण ही सही, मै जैसा हूँ मैं वैसा हूँ,
कह कह कर थक चुका हूँ मै।

मै चालाकी कर सकता हूँ
मै बेईमानी भी कर सकता हूँ।
मै निष्ठुर भी हो सकता हूँ
पर, एक छोटा सा डर रखता हूँ।

मै सोचता हूँ की
क्या ये सब करना वाकई ज़रूरी है?
या फिर इस स्वार्थी, निर्दयी समाज की
चलती आई रीति की मजबूरी है?

मुझे अगर लाभ कुछ कम हो
और सम्मान में कुछ कमी हो।
बेहतर लगता है इससे कि
बाहर मै त्यौहार पर मन मै गमीं हो।

गर मन मार कर और ज़मीर को दबाकर
जिस किसी तरह से सफल हो भी गया
मै मै न रहूँगा, मै सरल न रहूँगा

-पियूष

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