ज़िंदगी अजीब कश्मकश है!
जिस और आज खींचती है,
कल उस ही से दूर भागती है।
और जो आज फूटी आँख न सुहाता,
कल उसके वास्ते दिन-रात जागती है!
क्यूँ मानूँ मैं इसकी बात?
कल अपनी ही बात से मुकर जायेगी ।
इसकी बातों में गर फिर फँस गया,
तो ज़िंदगी यूँही बेमतलब बीत जायेगी ।
ज़िंदगी कौन है? दिल या दिमाग?
या फिर नसीब, या बस इक ख्वाब?
सोच-सोच यूँही परेशां रहता हूँ अक्सर,
पर बहुत जल्द लूँगा, इस ज़िंदगी से हिसाब।
सब कुछ देखकर जी करता है, छोड़ दूँ ये सब
बस रहूँ अपने में, केवल ज्ञाता-दृष्टा बन ।
पर फिर कोई अपनी परेशानी में खींच लेता है मुझे,
और कभी खुद बना लेता हूँ अपने लिए इक नयी उलझन!
बढ़ी शातिर है ये ज़िंदगी, फिर उलझा दिया!
Well played!
प्रशंसनीय